......................................................... श्री
गणेशाय
नमः..............................................................
पुराणों की प्रमाणिकता के आधार पर श्रृष्टि के रचियता श्री ब्रह्माजी ने मानसिक श्रृष्टि की उत्पति की ।
श्री
नारद मुनि के साथ कई ऋषि प्रकट हुए । इन ऋषियों में नगम ऋषि हुए । नगम ऋषि
के भारदवाज ऋषि हुए ।भारद्वाज ऋषि से हमारी गोत्र भारद्वाज कहलाई ।
भारद्वाज
ऋषि श्री विष्णु के अनन्य भक्त हुए साथ ही ये कुल देवी अम्बा के उपासक थे
।यजुर्वेद के झाता , हनुमान के उपासक और इनकी तपस्थली सरयू नदी के किनारे
थी ।
भारद्वाज गोत्र में उदंबर ऋषि हुए ।इस समय सूर्य
वंशी रजा महान्धता हुए ।रजा ने रुददी नगरी बसाई । यह समय त्रेतायुग का था ।
त्रेतायुग सम्वंत ९५१ में रुदारी नगरी के पास जंगल में उदंबर ऋषि अपनी
पत्नी के साथ रहते थे ।एक समय गर्भावस्था में ऋषि पत्नी जंगल में गाये
चराने जय । इसी समय राजा महान्धाता वहा आए । राजाने माता को जल पिलाया तथा
बचो की सार संभाल कर आश्रम में पहुँचाया । ऋषि उदंबर एंव ऋषि पत्नी ने रजा
को चक्रवाती सम्राट होने का आशिर्वास दिया ।
दोनों पुत्रो का नाम करण संस्कार किया गया। ये कोक्लेश्वर और केदारेश्वर के नाम से प्रशिद्ध हुए ।
राजा
महान्धाताने नर्बदा नदी के किनारे महादेव जी के मंदिर का निर्माण करवाया
तथा कई यज्ञ किए ।इन यज्ञो में से राजन ने एक यज्ञ मेवाड़ की पवन धरा पर भी
किया । राजन ने रनर नमक एक सुन्दर सरोवर बनाया तथा सरोवर की पूर्व दिशा
में भगवन शिव का मन्दिर बनवाया । यज्ञ कार्य के लिए राजा मान्धाता ने कई
ऋषि मुनियों को आमंत्रित किया इस यज्ञ में कोक्लेश्वर तथा केदारेश्वर ऋषि
दोनों भाइयो ने भाग लिया इस समय दोनों भाई तरुण अवस्था में थे ।यज्ञ समप्थी
के पश्चात ऋषियों ने राजन से भूमिदान के लिए कहा ।भूमि दान स्वीकार करने
के लिए कोई ऋषि तैयार नहीं हुए । तब राजा रानी के साथ विशाल यज्ञ शाला के
द्वार पर खड़े हो गए । राजा ने अपने हाथ पान का बीड़ा लिया जिसमे ५२ हजार
बीघा भूमि का दान लिखा हुआ था ।राजा प्रत्येक rishiको पान का बीड़ा स्वीकार
करने के लिए कहने लगे किसी ने स्वीकार नहीं किया । अंत में दोनों भाई
कोक्लेश्वर तथा केदारेश्वर आये । राजन ने दोनों से बहुत विनती की तब
कोक्लेश्वर ऋषि ने राजन को पान के बिदे को अपने पाँव के अंगुष्ट पर रखने के
लिए कहा ।
भूमि दान से युक्ता पान स्वीकार करते ही दोनों
भाइयो की तपश्या शीण हो गई दोनों भाई क्रोधित हो उठे । और कहा "राजन तुमने
यह अच्छा नहीं किया , तुमने भूमि दान लिखा हुआ पान हमारे अंगुष्ट पर रख
दिया । हम तुम्हे श्राप देते हे की जब तुम नर्बदा किनारे भगवान् शिव के
दर्शन करने जाओगे तब तुम अपनी फोज सहित पत्थर के बन जाओगे । और ओंकारेश्वर
महान्धता के
नाम से प्रसिद्ध होंगे " | ( स्कन्दपुराण )
राजा ओंकारेश्वर महान्धता के नाम से प्रशिद्ध हुए । जहा आज भी नर्बदा किनारे भव्य मन्दिर बना हुआ हे ।
दोनों
भाई कोक्लेश्वर तथा केदारेश्वर राणेरा से वर्तमान मेनार आये इस सुन्दर
रमणीय स्थान को अपनी तपस्थली बनाई । जहा दोनों ऋषि सर्वप्रथम आकर बेठे वहा
सुठी लगाकर छोटा सा चबूतरा बनाया गया जो आज भी ओंकारेश्वर के नाम से
प्रशिद्ध हे । चबूतरे के पश्चिम में कुल देवी अम्बा माता की स्थापना की ,
माता जी के पश्चिम में नीलकंठ महादेव की स्थापना की चवन्दा माता की स्थापना
की खेडा खुत माता जी की स्थापना की , महादेव की स्थापना के पास सीतलामाता
की स्थापना की । कोक्लेश्वर ऋषि ने शादी की तथा कोदर ऋषि ( केदारेश्वर ऋषि )
मेनार तथा हींता
गाँव के मध्य भगवान शिव की तपस्या में लीन हो गए । यही पर समाधी लेली जो केदारेश्वर के नाम से प्रशिद्ध हुए ।
कोकलेश्वर ऋषि के कवलेश्वर ऋषि हुए ,शिवदत ऋषि राजा शुरसेन के समय हुए । कई पीड़ियो पश्च्यात गयानेश्वर ऋषि हुए ।
पांड्वो को आश्रय गयानेश्वर ऋषि के समय चक्रवाती राजा पाण्डु हुए , महाराज पाण्डु के पांच पांडव हुए ।
गयानेश्वर ऋषि के अमृत पान ऋषि हुए । वनवास के समय पांड्वो ने कुछ समय अमृत पान ऋषि के आश्रम में बिताया ।
अमृत
पान ऋषि के गंगाधर ऋषि हुए गंगाधर ऋषि के सिंग ऋषि और भी ऋषि हुए । यह समय
राजा परिक्षीत का था । इस समय कलयुग का अवतरण हुआ । सिंग ऋषि और भीन ऋषि
जंगल में अपने शिष्यों के साथ तपस्या करते थे कलयुग के प्रभाव से राजा
परिक्षीत ने ऋषियों के गले में सर्प डाल दिया जब शिष्यों ने देखा तो राजन
को श्राप दे डाला राजा परिशीत ने सुखदेव मुनि से सप्तानी सुनी तथा सातवे
रोज नाग ने परिशीत को दस लिया ।
जन्मेजय का नाग यघ और हमारे ऋषि :- राजा
परिक्षीत के पुत्र जन्मेजय ने अपने पिताजी मृत्यु का बदला लेने
के लिए नाग यघ करवाया । गयानेश्वर ऋषि के चार पुत्र थे ।पहले अमृत पान ऋषि
,ये जंगल में आश्रम में रहते थे । तीन भाई उरगम , अश्तगम तथा कोक्मान ये मेंनार मेही तपश्या करते थे । जन्मेजय
के नाग यघ में कई ऋषियों ने भाग लिया मीनार से उद्गम ,अश्त्गम एवं कोक्मान
तीनो ने यघ में भाग लिया । ऋषि कोक्मान यघ के मुख्या रित्विघ्या बने ।यघ
समाप्ति पर तक्षक नाग को राजा इन्द्र सहित आना पड़ा । जन्मेजय ने तक्षक की
मणि निकाल कर छोड़ दिया यह मणि राजन ने कोक्मान ऋषि को दी । राजा जन्मेजय
छोटी पुत्री के भागने पर ऋषि ने यह मणि उसे दे दी । राजा ने हमें मणिहारी की उपाधि दी । यही पर राजा ने नागदा नगरी का निर्माण करवाया हमारी कई पीडिया यहाँ रही तथा हम नागदा ब्रह्मिन कहलाये ।मणिहारी का अप्रभंस मेनारिया हुआ ।
ऋषि
कोकमान की संतान नागदा नगरी से पुनः मेनार आये तथा अपने देवस्थानो की
सारसंभाल की । अम्बा माता के उतर में हनुमान जी की स्थापना की । ओंकारेश्वर
चबूतरे के पूर्व में बोचरी माता की स्थापना की उतर में नाराण देवी
की स्थापना की ।
'''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''' मेहता पदवी '''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''
कोकमान
ऋषि की संतानों मेसे नारे पान ऋषि के पुत्र श्री रंग जी गुजरात गए । ये
पाटनसिद्धपुर के राजा जयसिंह के यहाँ रहे । इधर मालवा के
राजा उद्याहित परमार के पुत्र जगदेव अपने पीता से विवाद के कारन जयसिंह के
यहाँ आये । इनसे राजा ने अपनी पुत्री का विवाह करा दिया
। इस समय माँ कालिका के पुत्र कला जी और गोरा जी हुए । इनके और जगदेव
के बिच युद्ध हुआ जिसमे गोराजी की हार हुई माता कालिका ने जयसिंह
से दात्री मांगी तब जगदेव ने अपना सर दिया तथा रंग जी ने मोती
दिया । जिससे श्री रंग जी को को मेहता पदवी दी गई ।इडर के राजा ने रायभान
जी ने सोने का कलश तथा इडानी दी जिसे लेकर श्री रंगजी मेनार आये । मेनार
में आने पर आपने खेडाखुट भेरू गाँव के पूर्व में तथा भदेरिया भेरू गाँव के दक्षिण में स्थापना की ।
हर्रित ऋषि और बाप्पा रावल :- नागदा नगरी में कालांतर
में हारित ऋषि हुए । हारित ऋषि क बाप रावल ने बाल्यकाल
में सेवाजी ये गाये चराते थे । ऋषि के आशीर्वाद से
बाप रावल को शुद राज्य की प्राप्ति हुई । इन्होने चित्तोड़ पर विजय प्राप्त कर अपनी राजधानी बनाई।
इधर
मीनार में श्री रंग जी के पुत्र विराम्दास जी हुए इनके समय में गाँव का
विधिवत विकास हुआ । इस समय गाँव में बारह तालाब बनाये गए ।
- भरमेला
- ढंड
- करचेला
- गोपेला
- खरोला
- भेरव
विरमदास जी ने गाँव के पश्चिम में नाले
के किनारे स्थित नीलकंठ महादेव जिनकी स्थापना कोक्लेश्वर ऋषि ने
की थी । यहाँ सुन्दर मंदिर बनवाया तथा नाले को बांध
कर भरमेला तालाब बनाया ठाकुर जी ( श्री कृष्ण ) मंदिर का निर्माण किया ।
मेनारिया जात बंधी :- मेहता दगताजी
कें पुत्र म्धुश्याम जी हुए ये भगवान श्री कृष्ण के अनन्य भक्त थे । ये
हमेशा भगवान श्री कृष्ण की भक्ति में लीन रहते थे । इन्होने ओंकारेश्वर के
चबूतरे के पश्चिम श्री कृष्ण मंदिर बनवाया । पूर्व में थम्ब रोपा ।
मधुश्याम जी की बहिन जगनाथि बाई ने सुन्दर बावड़ी बनवाई जो आज जगनाथि बाई
की बावड़ी के नाम से प्रशिद्ध हे यह बावड़ी वर्तमान में उच्च माध्यमिक
विद्यालय के परिसर में हे । एवं इनके उपलक्ष्य में विशाल यघ का आयोजन किया
गया इस यघ में समश्त समाज के ब्राह्मन को बुलाया गया । जीन गाँवो के
ब्राह्मणों ने इस यज्ञ में भाग लिया वे सभी मेनारिया कहलाये । भगवान श्री
कृष्ण के भक्त मधुश्याम जी की कीर्ति चारो तरफ फ़ैल गई । आप समाज के पूजनीय
कहलाये मधुश्याम जी की मूर्ति आज भी हरी मंदिर में विराजमान है ।
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